कामिनी
सदियों की अविरल तपस्या
अरे कामिनी भंग न करना
यह मन बस एक पंछी
है
अपनी डाली बदल न डाले
तेरे पाँव की थिरकन
से
ब्रह्म मेरा मचल न जाये
विच्छिन्न विरत जग से
प्यासा ही जब दूर हुवा
तेरे रूप गंध यौवन ने
आज मुझे तृप्त किया
मैं सोचु यह हार
है मेरी
नहीं नहीं कैसी विडंबना
क्या तपस्वी के हृदय मैं
होती नहीं काम वासना
शिव ने भी तन से अपने
अर्ध अंग को पूर्ण किया
डोल उठा हृदय विश्व का
मेनका ने स्पर्श किया
त्याग कर अपना यौवन
अरे त्यागी क्या पायेगा
प्यार के रस मैं रंगी
ललना को ठुकराएगा
पाप है ! यह पाप !
क्या होगी सकल साध तेरी
प्रकृति रचित कामिनी की
आराधना रह जाये अधूरी
वाह।
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